बुधवार, 5 अगस्त 2020

हिंदी के प्रति हमारा रवैया

जब हम स्कूल में हिंदी की हालत की पड़ताल करते हैं तो अधिकतर मामलों में हमें निराशा होती है। हम पाते हैं कि ज़्यादातर बच्चों की हिंदी अच्छी नहीं होती है। जब मैं कहता हूं कि बच्चों की हिंदी अच्छी नहीं होती है, तो मेरा मतलब परीक्षा में प्राप्त अंकों से बिल्कुल भी नहीं है। बहुत से मामलों में परीक्षा में प्राप्त अंक विद्यार्थी की वास्तविक क्षमता योग्यता को नहीं दर्शाते हैं और ना ही इससे उसके भावी जीवन की सफलता सुनिश्चित होती है। इसके कई उदाहरण दिए जा सकते हैं।

 एक विद्यार्थी पहली कक्षा से लेकर बारहवीं कक्षा तक अपनी पढ़ाई पूरी करके विद्यालय से निकल जाता/जाती है, लेकिन उसकी हिंदी सही नहीं हो पाती है। क्या एक भाषा को ठीक तरह से सीखने के लिए 12 वर्ष का समय भी कम पड़ जाता है?

जब स्कूल में हिंदी की इस दशा अथवा दुर्दशा को ध्यान से समझते हैं तो हम पाते हैं कि इसका सबसे बड़ा कारण है- 'हिंदी के प्रति हमारा रवैया'

अधिकतर मामलों में बच्चे यह मानकर चलते हैं कि हिंदी को सीखने के लिए किसी विशेष प्रयास की ज़रूरत नहीं है। हिंदी ही एकमात्र ऐसी भाषा है जिसे बिना प्रयास के भी सीखा जा सकता है। यही कारण है कि घर में पढ़ने के लिए बने प्रतिदिन के समय-सारणी (टाइम टेबल) में हिंदी के लिए कोई विशेष समय नहीं दिया जाता है। हिंदी के लिए समय तभी निकल पाता है जब किसी तरह का गृह-कार्य अथवा अपूर्ण कक्षा-कार्य पूरा करना होता है या फिर हिंदी की परीक्षा शुरू होने वाली हो।

 इससे भी ज़्यादा मज़ेदार और अचरज की बात यह है कि हिंदी के प्रति यह रवैया बच्चों के साथ-साथ उनके अभिभावकों में भी देखा और पाया जाता है। दरअसल बच्चे अपनी आरंभिक अवस्था में हम बड़ों से ही सीखते और प्रेरित होते हैं। और यही प्रेरणा बाद के दिनों तक उनमें बनी रहती है।

यह भी एक विचारणीय बात है कि हिंदी की खराब हालत उन बच्चों में अधिक देखी जाती है जो तथाकथित हिंदीभाषी हैं अथवा हिंदीभाषी क्षेत्र से संबंधित हैं। मुझे याद है कि शिलांग में पोस्टिंग के दौरान मेरी कक्षा में हिंदी के सबसे अच्छे विद्यार्थी मणिपुर और नागालैंड के निवासी थे। अरुणाचल प्रदेश के उस छात्र को मैं नहीं भूल सकता जो हिंदी सीखने के लिए बहुत प्रयास करता था।

यह महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है कि आपकी मातृभाषा क्या है अथवा आप किस भाषा-समुदाय से संबंध रखते हैं, असल बात है आप किसी भाषा को कितना सम्मान देते हैं, उसे ठीक से सीखने के लिए आपमें कितनी लगन है तथा उसके लिए कितना सचेत प्रयास करते हैं।

रोज़मर्रा के अपने जीवन में हम चारों तरफ भाषा की अशुद्धियों की कई झलकियां देख सकते हैं। सोशल मीडिया इसका एक अच्छा उदाहरण है। जगह-जगह लगे नामपटृ तथा बैनरों में भी इन अशुद्धियों को देखा जा सकता है। कई बार उच्च पदों पर आसीन तथा पेशेवर व्यक्तियों की भाषा में भी अशुद्धियां देखी जाती हैं। एक पत्रिका में संपादकीय पढ़ते हुए मैंने पाया कि संपादक महोदय इस बात का रोना रो रहे हैं कि उनके पास आने वाली रचनाओं में कई तरह की भाषागत अशुद्धियां रहती हैं जिसे ठीक करना उनके लिए एक दुष्कर तथा श्रमसाध्य कार्य बन जाता है। कई बार मुझे ऐसे प्रतिभागियों से दो-चार होने का अवसर मिला है जो सुनामधन्य उच्च शिक्षण संस्थानों से शिक्षा प्राप्त हैं तथा हिंदी के भावी शिक्षक बनने की आकांक्षा रखते हैं लेकिन उनका भाषायी ज्ञान चिंता जगाता है।

भाषा की जटिलता का मैं समर्थक नहीं हूं। भाषा वही अच्छी होती है जो सरल हो। भाषा वही अच्छी होती है जिसमें अनेक भाषाओं तथा लोक-भाषाओं के शब्दों को ग्राह्य करने की क्षमता हो। भाषा का प्रधान लक्ष्य अभिव्यक्ति संवाद है। भाषा की सरलता ही भाषा की सफलता है। लेकिन हमें शब्द-रचना तथा वाक्य-रचना के सामान्य नियमों को अवश्य सीखना चाहिए तथा वर्तनी आदि दोषों से बचना चाहिए।

हमारा भाषा-ज्ञान ही हमारे शिक्षित, सभ्य तथा सुसंस्कृत होने का प्रथम प्रमाण है। अतः ज़रूरत है भाषा सीखने के प्रति हम अपना रवैया बदलें। अगर हम हिंदी भाषा सीख रहे हैं, पढ़ रहे हैं तो इसके लिए थोड़ा सचेत प्रयास अभ्यास करें।


1 टिप्पणी:

  1. सर मुझे यह पढ़कर आज ऐसा लग रहा है जैसे लोग आज हिंदी की बाज़ार नहीं, बल्कि बाज़ार की हिंदी बनाते हैं।
    और वैसे सभी लोग जो हिंदी को सबसे आसान समझते हैं या खुद के खेत की मूली समझते हैं मेरा उनसे कहना है।
    "पिघलकर पानी बन जाए जग में ऐसा कोई पाषाण नहीं।
    यह हिंदी है जनाव और यह भी किसी से आसान नहीं।।

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