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शनिवार, 11 अक्टूबर 2025
उपभोक्तावाद की संस्कृति: एक अध्ययन मार्गदर्शिका
पतंग (आलोक धन्वा)
तुलसीदास (कवितावली एवं रामचरितमानस) कक्षा- 12वीं
तुलसीदास: अध्ययन मार्गदर्शिका
लघु-उत्तरीय प्रश्नोत्तरी
तुलसीदास ने शास्त्रीय और लोकभाषा के बीच संतुलन कैसे साधा? उनकी रचनाओं में यह द्वंद्व किस प्रकार प्रकट होता है?
'कवितावली' के अनुसार, तुलसीदास अपने युग की सबसे बड़ी समस्या किसे मानते हैं और उसका मूल कारण क्या बताते हैं?
"पेट की आग" की समस्या का समाधान तुलसीदास किसमें देखते हैं? उनकी राम-भक्ति इस समस्या का समाधान कैसे करती है?
दूसरे कवित्त ("खेती न किसान को...") में तुलसीदास ने अपने समय की किन सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का चित्रण किया है और उसकी तुलना किससे की है?
"धूत कहौ..." सवैया के माध्यम से तुलसीदास समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं? यह उनके भक्त-हृदय के किस गुण को उजागर करता है?
'लक्ष्मण-मूर्च्छा' प्रसंग में राम के विलाप का क्या महत्व है? यह प्रसंग पाठक को काव्य से किस प्रकार जोड़ता है?
शोकपूर्ण वातावरण में हनुमान के आगमन को "करुण रस के बीच वीर रस का उदय" क्यों कहा गया है?
स्रोत के अनुसार, तुलसीदास को हिंदी का 'जातीय कवि' क्यों माना जाता है? वे किन तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं?
अलंकार के प्रयोग में तुलसीदास की विशिष्ट पहचान क्या है, जिसकी तुलना कालिदास से की गई है?
तुलसीदास के काव्य की एक प्रमुख विशेषता "द्वंद्वों का चित्रण और उनका समन्वय" है। इसका उनके काव्य और पाठकों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
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उत्तर कुंजी
तुलसीदास ने शास्त्रीय भाषा (संस्कृत) में सक्षम होते हुए भी साहित्य रचना के लिए लोकभाषा (अवधी व ब्रजभाषा) को चुना। उनकी रचनाओं में शास्त्र और लोक का द्वंद्व स्पष्ट है, जहाँ वे संवेदना की दृष्टि से लोक की ओर झुके हैं, वहीं शिल्पीगत मर्यादा की दृष्टि से शास्त्र का पालन करते हैं।
'कवितावली' के अनुसार, तुलसीदास अपने युग की सबसे बड़ी समस्या "पेट की आग" को मानते हैं। वे कहते हैं कि संसार के सभी अच्छे-बुरे कर्म, धर्म-अधर्म, यहाँ तक कि बेटा-बेटी को बेचने जैसे जघन्य कार्य भी इसी पेट की आग को बुझाने के लिए किए जाते हैं।
तुलसीदास "पेट की आग" का समाधान केवल राम रूपी घनश्याम (बादल) के कृपा-जल में देखते हैं। उनकी राम-भक्ति केवल आध्यात्मिक मुक्ति ही नहीं देती, बल्कि जीवन के यथार्थ संकटों का समाधान भी करती है।
दूसरे कवित्त में तुलसीदास प्रकृति और शासन की विषमता से उपजी बेकारी और गरीबी की पीड़ा का यथार्थ चित्रण करते हैं। उन्होंने दिखाया है कि किसान, भिखारी, व्यापारी, नौकर सभी आजीविका-विहीन हैं, और इस दारिद्र्य रूपी दशानन ने सबको दबा रखा है।
"धूत कहौ..." सवैया के माध्यम से तुलसीदास समाज में व्याप्त जात-पाँत और धर्म के भेदभावपूर्ण दुराग्रहों का तिरस्कार करते हैं। यह उनके स्वाभिमानी भक्त-हृदय के आत्मविश्वास को दर्शाता है, जो राम का गुलाम होने के अतिरिक्त किसी सामाजिक पहचान की परवाह नहीं करता।
'लक्ष्मण-मूर्च्छा' प्रसंग में राम का विलाप ईश्वरीय राम का पूरी तरह से मानवीकरण कर देता है। यह एक भाई के शोक में व्याकुल मनुष्य की सच्ची मानवीय अनुभूति को दर्शाता है, जिससे पाठक का काव्य-मर्म से सीधा जुड़ाव हो जाता है।
हनुमान का आगमन उस गहन शोक और निराशा के वातावरण में होता है जहाँ राम विलाप कर रहे हैं और वानर सेना व्याकुल है। संजीवनी बूटी लेकर उनका आना एक नई आशा, ऊर्जा और पराक्रम का संचार करता है, इसलिए उनके आगमन को करुण रस के बीच वीर रस का उदय कहा गया है, जो कथा को मंगल की ओर ले जाता है।
तुलसीदास को 'जातीय कवि' इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे अपने समय में हिंदी-क्षेत्र में प्रचलित सभी भावात्मक और काव्य-भाषा के तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने अवधी और ब्रजभाषा दोनों में तथा सीताराम और राधाकृष्ण दोनों कथाओं पर अधिकारपूर्वक रचना की।
जिस प्रकार उपमा अलंकार के क्षेत्र में कालिदास की विशिष्ट पहचान है, उसी प्रकार सांगरूपक अलंकार के क्षेत्र में तुलसीदास की पहचान है। उनका सांगरूपक का प्रयोग अद्वितीय माना जाता है।
तुलसीदास दार्शनिक और लौकिक स्तरों पर विभिन्न द्वंद्वों का चित्रण करते हैं और फिर उनका समन्वय स्थापित करते हैं। द्वंद्व-चित्रण से सभी विचारधारा के लोगों को उनके काव्य में अपनी उपस्थिति का संतोष मिलता है, जबकि समन्वय उन विभिन्नताओं में निहित मानवीय सूत्र को दिखाकर संसार में एकता और शांति का मार्ग प्रशस्त करता है।
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निबंधात्मक प्रश्न (स्वयं उत्तर लिखने का प्रयास करें)
"तुलसीदास लोक मंगल की साधना के कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं।" स्रोत में दिए गए अंशों के आधार पर इस कथन की विस्तृत विवेचना कीजिए।
'कवितावली' के पठित अंशों में तुलसीदास के युग का जो यथार्थ चित्रित हुआ है, उसकी तुलना वर्तमान सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से कीजिए।
'लक्ष्मण-मूर्च्छा और राम का विलाप' प्रसंग में कवि तुलसी और भक्त तुलसी के द्वंद्व को स्पष्ट कीजिए। विश्लेषण कीजिए कि इस प्रसंग पर कौन हावी होता है और कैसे?
"तुलसी की राम-भक्ति पेट की आग बुझाने वाली यानि जीवन के यथार्थ संकटों का समाधान करने वाली है।" इस कथन का 'कवितावली' के छंदों के आधार पर विश्लेषण कीजिए।
स्रोत में वर्णित तुलसीदास की काव्य-भाषा और शिल्पगत विशेषताओं (जैसे- भाषा का चुनाव, छंद प्रयोग, अलंकार) पर एक विस्तृत टिप्पणी लिखिए।
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शब्दावली
शब्द | अर्थ |
किसबी | धंधा, पेशा |
चेटी | बाजीगर |
तव | तुम्हारा, आपका |
राखि | रखकर |
जैहउँ | जाऊँगा |
अस | इस तरह |
आयसु | आज्ञा |
मुहुँ | में |
कपि | बंदर (यहाँ हनुमान के लिए प्रयुक्त) |
सराहत | बड़ाई कर रहे हैं |
मनुज अनुसारी | मानवोचित, मनुष्य के अनुसार |
काउ | किसी प्रकार |
लागि | के लिए |
तजेहु | त्यागते हो |
बिपिन | जंगल |
आतप | धूप |
बाता | हवा, तूफ़ान |
जनतेउँ | (यदि) जानता |
मनतेउँ | (तो) मानता |
बित | धन |
नारि | स्त्री, पत्नी (यहाँ पर पत्नी) |
बारहिं बारा | बार-बार ही |
जिअँ | मन में |
बिचारि | विचार कर |
सहोदर | एक ही माँ की कोख से जन्मे |
जथा | जैसे |
दीना | दरिद्र |
तात | भाई के लिए संबोधन |
मनि | नागमणि |
फनि | साँप (यहाँ मणि-सर्प) |
करिवर | हाथी |
कर | सूँड |
मम | मेरा |
बिनु तोही | तुम्हारे बिना |
बरु | चाहे |
अपजस | अपयश, कलंक |
सहेउँ | सहना पड़ेगा |
छति | क्षति, हानि |
निठुर | निष्ठुर, हृदयहीन |
तासु | उसके |
मोहि | मुझे |
पानि | हाथ |
उतरु काह दैहउँ | क्या उत्तर दूँगा |
सोच-बिमोचन | शोक दूर करने वाला |
स्रवत | चूता है |
प्रलाप | तर्क हीन वचन-प्रवाह |
निकर | समूह |
हरषि | प्रसन्न होकर |
भेंटेउ | भेंट की, मिले |
कृतज्ञ | कृतज्ञ, उपकार मानने वाला |
सुजाना | अच्छा ज्ञानी, समझदार |
कीन्हि | किया |
हरषाई | हर्षित |
हृदयँ | हृदय में |
भ्राता | समूह, झुंड |
लइ आवा | ले आए |
सिर धुनेउ | सिर धुनने लगा |
पहिं | (के) पास |
निसिचर | रात में चलने वाला, राक्षस |
हरि आनी | हरण कर लाए |
जोधा | योद्धा |
संघारे | मार डाले |
दुर्मुख | कड़वी ज़बान वाला |
दसंकर | दशानन, रावण |
महोदर | बड़े पेट वाला |
अपर | दूसरा |
भट | योद्धा |
सठ | दुष्ट |
रनधीरा | युद्ध में अविचल रहने वाला |
चौपाई | सम मात्रिक छंद; चार पंक्तियों का, प्रत्येक पंक्ति में 16-16 मात्राएँ। |
दोहा | अर्द्धसम मात्रिक छंद; विषम चरणों (1, 3) में 13-13 और सम चरणों (2, 4) में 11-11 मात्राएँ। |
सोरठा | दोहे का उल्टा; विषम चरणों (1, 3) में 11-11 और सम चरणों (2, 4) में 13-13 मात्राएँ। |
कवित्त | वार्णिक छंद (मनहरण भी कहते हैं); प्रत्येक चरण में 31-31 वर्ण, 16वें और 15वें वर्ण पर यति। |
सवैया | वार्णिक छंद; प्रत्येक चरण में 22 से 26 वर्ण होते हैं। |
तुलसीदास ने अपनी रचनाओं, विशेष रूप से कवितावली और रामचरितमानस, में लोकभाषा और शास्त्र का समन्वय करके लोक कल्याण को कई महत्वपूर्ण तरीकों से साधा है। गोस्वामी तुलसीदास की भक्ति इतनी अधिक लोक-उन्मुख (लोगों की ओर झुकी हुई) है कि वे लोक मंगल की साधना करने वाले कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं। यह विशेषता न केवल उनकी काव्य संवेदना में है, बल्कि काव्यभाषा के घटकों की दृष्टि से भी सत्य है।
यहाँ बताया गया है कि उन्होंने लोकभाषा और शास्त्र का समन्वय कर लोक कल्याण कैसे साधा:
1. भाषा का समन्वय और लोक-पहुँच (Accessibility through Language)
लोकभाषा का चुनाव: तुलसीदास में शास्त्रीय भाषा (संस्कृत) में भी सृजन-क्षमता थी, लेकिन उन्होंने साहित्य-रचना के माध्यम के रूप में लोकभाषा (अवधी और ब्रजभाषा) को चुना और बुना। उस समय हिंदी-क्षेत्र की दोनों काव्य भाषाओं (अवधी और ब्रजभाषा) का उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
द्वंद्व का समाधान: तुलसीदास शास्त्र और लोक के द्वंद्व (दोधारे) के कवि हैं। संवेदना की दृष्टि से वे लोक की ओर झुके हैं, तो शिल्पगत मर्यादा (काव्य रचना के नियम) की दृष्टि से शास्त्र की ओर।
दोतरफा प्रक्रिया: उनके यहाँ शास्त्रीयता को लोकग्राह्य (आम जनता द्वारा स्वीकार्य) बनाने और लोकगृहीत (लोक में प्रचलित) को शास्त्रीय बनाने की उभयमुखी प्रक्रिया चलती है। इसी कारण वे विद्वानों तथा जनसामान्य में समान रूप से लोकप्रिय हैं।
इस प्रकार, लोकभाषा का प्रयोग करके उन्होंने जटिल शास्त्रीय विचारों और रामकथा को जन-जन तक पहुँचाया, जो लोक कल्याण का आधार बना।
2. रामचरितमानस में नैतिक एवं सामाजिक कल्याण
लोक-संवेदना और नैतिक बनावट: रामचरितमानस की विश्व प्रसिद्ध लोकप्रियता के पीछे सीताराम कथा से अधिक लोक-संवेदना और समाज की नैतिक बनावट की समझ है।
मानवीकरण द्वारा आदर्श स्थापना: तुलसीदास के सीताराम ईश्वर की अपेक्षा, उनके देश-काल के आदर्शों के अनुरूप मानवीय धरातल पर पुनः सृष्ट चरित्र हैं। लक्ष्मण को शक्ति बाण लगने के प्रसंग में, राम का विलाप ईश्वरीय राम का पूरी तरह से मानवीकरण कर देता है। यह मानवीकरण पाठक को काव्य-मर्म से सीधे जोड़ता है।
मानवीय सूत्रों का समन्वय: वे दार्शनिक और लौकिक स्तर के नाना द्वंद्वों के चित्रण और उनके समन्वय के कवि हैं। यह समन्वय ऊपरी विभिन्नता में निहित एक ही मानवीय सूत्र को उपलब्ध कराकर संसार में एकता और शांति का मार्ग प्रशस्त करता है।
गृहस्थ जीवन के आदर्श: गोस्वामी जी ग्रामीण और कृषक संस्कृति तथा रक्त संबंध की मर्यादा पर आधारित आदर्शवृत्त गृहस्थ जीवन के चितेरे कवि हैं।
3. कवितावली में आर्थिक और सामाजिक विषमताओं का समाधान
युगीन यथार्थ का चित्रण: तुलसीदास का युगीन यथार्थ विविध विषमताओं से ग्रस्त कलियुग है। उन्हें युग का गहरा बोध है।
'पेट की आग' का निवारण: कवितावली के छंदों में, उन्होंने संसार के समस्त क्रियाकलापों का आधार 'पेट की आग' के दारुण और गहन यथार्थ को दिखलाया है।
वे इस संकट का समाधान राम-रूपी घनश्याम (मेघ) के कृपा-जल में देखते हैं।
इस प्रकार, उनकी राम-भक्ति पेट की आग बुझाने वाली यानी जीवन के यथार्थ संकटों का समाधान करने वाली है, साथ ही जीवन से परे आध्यात्मिक मुक्ति भी देने वाली है।
कवितावली में यह भी बताया गया है कि लोग ऊँचे-नीचे कर्म, धर्म-अधर्म करके भी पेट के लिए ही परेशान होते हैं और यहाँ तक कि अपने बेटा-बेटी बेचते हैं। यह दारिद्र्य उस समय का एक सत्य था।
बेकारी और गरीबी: तुलसीदास ने प्रकृति और शासन की विषमता से उपजी बेकारी और गरीबी की पीड़ा का यथार्थपरक चित्रण किया है, जिसकी तुलना उन्होंने दशानन (रावण) से की है। इस तुलना के माध्यम से वे उस समय की समस्याओं की भयावहता को रेखांकित करते हैं।
सामाजिक रूढ़ियों का तिरस्कार: कवितावली के एक सवैया में तुलसीदास ने भक्ति की गहनता में उपजे आत्मविश्वास का सजीव चित्रण किया है, जिससे समाज में व्याप्त जात-पाँत और धर्म के विभेदक दुराग्रहों के तिरस्कार का साहस पैदा होता है। वे कहते हैं कि "तुलसी सरनाम गुलाम है राम को" और जाति-पाँत की परवाह नहीं करते ("काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोउ")। यह भक्ति की रचनात्मक भूमिका का संकेत है, जो सामाजिक भेद-भावमूलक माहौल में अत्यंत प्रासंगिक है।
इस प्रकार, तुलसीदास ने लोकभाषा का उपयोग करके सामाजिक, आर्थिक और आध्यात्मिक समस्याओं को चित्रित किया और राम भक्ति तथा रामराज्य के आदर्श के माध्यम से उनके समाधान की ओर संकेत किया, जिससे व्यापक लोक कल्याण सधा।
तुलसीदास का युग विविध विषमताओं से ग्रस्त 'कलियुग' का युगीन यथार्थ था, जिसमें वे कृपालु प्रभु राम और रामराज्य का स्वप्न रचते हैं। उन्हें अपने युग और उसमें अपने जीवन का गहरा बोध था। उनकी यह दृष्टि मुख्य रूप से कवितावली में युगीन यथार्थ के चित्रण तथा रामचरितमानस में आदर्शों की स्थापना और समन्वय के रूप में प्रकट होती है।
यहाँ दोनों कृतियों में चित्रित विषमताओं के प्रति कवि की दृष्टि का विस्तृत विवरण दिया गया है:
1. युगीन आर्थिक विषमताओं के प्रति कवि की दृष्टि
तुलसीदास ने अपने समय की भयानक आर्थिक पीड़ा का यथार्थ चित्रण किया है, जिसका प्रमाण कवितावली के छंदों में मिलता है।
कष्ट का चित्रण (पेट की आग):
तुलसीदास ने दिखलाया है कि संसार के सभी लीला-प्रपंचों का आधार 'पेट की आग' का दारुण व गहन यथार्थ है। वे कहते हैं कि यह 'पेट की आग' बड़वाग्नि (समुद्र की आग) से भी बड़ी है।
इस आग को बुझाने के लिए समाज के विभिन्न वर्ग, जिनमें कारीगर (किसबी), किसान, व्यापारी (बनिक), भिखारी, भाट, चाकर (सेवक), नट, चोर, दूत (चार) और बाजीगर (चेटकी) शामिल हैं, ऊँचे-नीचे, धर्म-अधर्म के काम करते हैं।
सबसे दुखद यथार्थ यह है कि लोग पेट के लिए ही पचते हैं और बेटा-बेटी तक बेच डालते हैं ("पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी")।
बेरोजगारी और गरीबी:
कवि ने तत्कालीन समाज में व्याप्त बेकारी और गरीबी की पीड़ा का यथार्थपरक चित्रण किया है, जो प्रकृति और शासन की विषमता से उत्पन्न हुई थी।
वे बताते हैं कि किसान के पास खेती नहीं है, भिखारी को भीख नहीं मिल रही, व्यापारी के पास व्यापार नहीं है, और चाकर को चाकरी नहीं है।
जीविका विहीन लोग सोच के वश में होकर पीड़ित हैं और एक दूसरे से पूछते हैं कि "कहाँ जाइ, का करी" (कहाँ जाएँ, क्या करें)।
तुलसीदास ने इस दारिद्रय (गरीबी) को 'दारिद्र-दशानन' (गरीबी रूपी रावण) से उपमित किया है, जिसने पूरी दुनिया को दबा रखा है।
आर्थिक विषमता का समाधान (रामभक्ति):
कवि इस दारुण संकट का समाधान राम-रूपी घनश्याम (मेघ) के कृपा-जल में देखते हैं।
उनकी राम-भक्ति न केवल जीवन के यथार्थ संकटों का समाधान करने वाली है (यानी पेट की आग बुझाने वाली), बल्कि साथ ही जीवन के बाद आध्यात्मिक मुक्ति देने वाली भी है। वे दीनबंधु (गरीबों के बंधु) राम से इस दुख (दुरित-दहन) को देखकर कृपा करने की विनती करते हैं।
2. युगीन सामाजिक विषमताओं के प्रति कवि की दृष्टि
तुलसीदास ने उस समय समाज में व्याप्त जात-पाँत और धर्म के विभेदक दुराग्रहों के प्रति अत्यंत साहसी और स्वाभिमानी दृष्टि अपनाई।
जातिगत भेदभाव का तिरस्कार:
कवितावली के सवैया में, तुलसीदास समाज के जाति-आधारित विभाजन को स्पष्ट रूप से अस्वीकार करते हैं। वे कहते हैं:
"धूत कहौ, अवधूूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ। काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ।।"इस कथन से समाज में प्रचलित जाति-पाँत के दुराग्रहों के प्रति तिरस्कार का साहस उत्पन्न होता है। तुलसीदास अपनी भक्ति की गहनता और सघनता से उपजे आत्मविश्वास को दर्शाते हैं।
स्वाभिमानी भक्त हृदय:
वह स्वयं को राम का प्रसिद्ध गुलाम (तुलसी सरनाम गुलामू है राम को) घोषित करते हैं, जिसे जो अच्छा लगे, वह कह सकता है।
सामाजिक मानदंडों से हटकर, वे एक स्वाभिमानी भक्त के रूप में कहते हैं कि वे माँग कर खाएँगे और मस्जिद (मसीत) में सोएँगे, उन्हें किसी से न कुछ लेना है और न कुछ देना है ("लैबोंको एकु न दैबोंको दोऊ")। यह उनका भीतरी यथार्थ है, जो ऊपर से सरल या निरीह नहीं दिखता।
भक्ति की रचनात्मक भूमिका:
इस प्रकार, तुलसीदास की दृष्टि में भक्ति की एक रचनात्मक भूमिका है। यह दृष्टिकोण आज के भेदभावमूलक सामाजिक-राजनीतिक माहौल में भी अत्यधिक प्रासंगिक है।
3. रामचरितमानस में विषमताओं और द्वंद्वों के प्रति दृष्टि
जबकि कवितावली में युगीन यथार्थ का सीधा चित्रण है, रामचरितमानस में तुलसीदास ने समन्वय और आदर्श की दृष्टि प्रस्तुत की है।
समन्वय और लोक-मंगल: तुलसीदास दार्शनिक और लौकिक स्तर के अनेक द्वंद्वों के चित्रण और उनके समन्वय के कवि हैं। द्वंद्वों का चित्रण सभी विचारधाराओं के लोगों को संतुष्टि देता है, जबकि समन्वय ऊपरी विभिन्नता में निहित मानवीय सूत्र को उपलब्ध कराकर संसार में एकता और शांति का मार्ग प्रशस्त करता है। उनका ध्येय लोक-मंगल की साधना था।
आदर्श चरित्रों की स्थापना: रामचरितमानस में उनके सीता-राम ईश्वर की अपेक्षा, तुलसी के देश-काल के आदर्शों के अनुरूप मानवीय धरातल पर पुनः सृष्ट चरित्र हैं। वे ग्रामीण व कृषक संस्कृति तथा रक्त संबंध की मर्यादा पर आदर्शवृत्त गृहस्थ जीवन के चितेरे कवि हैं।
तुलसीदास ने कवितावली में युगीन आर्थिक विषमताओं (पेट की आग, बेरोजगारी, गरीबी) को दशानन (रावण) जैसा बताया और उसका समाधान राम की कृपा में देखा। वहीं, सामाजिक विषमताओं के विरुद्ध उन्होंने जाति और धर्म के दुराग्रहों को अस्वीकार करते हुए एक स्वाभिमानी भक्त की दृष्टि प्रस्तुत की। रामचरितमानस में उन्होंने समन्वय और आदर्श (रामराज्य) के माध्यम से इन विषमताओं से ऊपर उठकर लोक-मंगल की दिशा दिखाई।
गोस्वामी तुलसीदास के काव्य की एक अनन्य विशेषता यह है कि वे दार्शनिक और लौकिक स्तर के नाना द्वंद्वों (अनेक द्वंदों) के चित्रण और उनके समन्वय के कवि हैं। राम के ईश्वरीय (दैवीय) और मानवीय (नर) चरित्रों का द्वंद्व उनकी रचनाओं, विशेष रूप से रामचरितमानस में, अत्यंत मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया गया है।
तुलसीदास ने राम के चरित्र को प्रस्तुत करने के लिए उभयमुखी प्रक्रिया अपनाई, जिससे राम एक ओर परमेश्वर बने रहते हैं, वहीं दूसरी ओर वे आम जनता के लिए सुलभ, आदर्श मानव के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं:
1. मानवीय धरातल पर राम की पुनः-सृष्टि
तुलसीदास ने रामकथा में लोक संवेदना और समाज की नैतिक बनावट पर विशेष ध्यान दिया है। उनके सीता-राम ईश्वर (God) की अपेक्षा तुलसी के देश-काल के आदर्शों के अनुरूप मानवीय धरातल पर पुनः सृष्ट चरित्र हैं।
2. राम के ईश्वरीय स्वरूप के साथ मानवीय लीला का चित्रण
राम के चरित्र का द्वंद्व सबसे अधिक गहनता से लक्ष्मण-शक्ति लगने वाले प्रसंग में प्रस्तुत होता है, जो रामचरितमानस के लंका कांड से लिया गया है।
ईश्वरीय राम का मानवीकरण: लक्ष्मण को शक्ति बाण लगने के बाद, भाई के शोक में विगलित राम का विलाप धीरे-धीरे प्रलाप में बदल जाता है। यह प्रसंग ईश्वरीय राम का पूरी तरह से मानवीकरण कर देता है।
मनुज अनुसारी वचन: राम वहाँ मनुजोचित (मानवों के अनुसार) वचन बोलते हैं। वे लक्ष्मण को हृदय से लगाकर उठाते हैं और कहते हैं कि दुखित देखकर उन्हें कोई सह नहीं सकता था, क्योंकि लक्ष्मण का स्वभाव सदा कोमल रहा है।
मानव प्रेम की पराकाष्ठा: राम उस प्रेम को याद करते हैं जिसके कारण लक्ष्मण ने अपने माता-पिता को छोड़कर वन में उनके हित के लिए धूप, हवा और ठंड को सहा।
"मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।।"संसार की नश्वरता और भाई की महत्ता: शोक में डूबे राम कहते हैं कि पुत्र, धन, पत्नी (नारि), घर-परिवार बार-बार मिल जाते हैं, लेकिन संसार में सहोदर भ्राता (एक ही माँ की कोख से जन्मा भाई, यहाँ अत्यंत प्रिय भाई के अर्थ में प्रयुक्त, भले ही वे सहोदर न हों) नहीं मिलता। यदि वे वन में भाई के बिछोह (वियोग) को जानते, तो पिता का वचन भी नहीं मानते।
"मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।।" "जाँ जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पितु बचन मनेउँ नहिं ओहू।।"मानवीय विवशता का चित्रण: राम अपनी दयनीय स्थिति की तुलना करते हुए कहते हैं कि वे लक्ष्मण के बिना ऐसे होंगे, जैसे पंख बिना पक्षी अत्यंत दीन होता है, मणि बिना सर्प, या सूँड़ बिना श्रेष्ठ हाथी।
"जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना।।" "अस मम जीवन बंधु बिनु तोही। जाँ जड़ देव जियावै मोही।।" वे यह भी कहते हैं कि पत्नी के लिए प्रिय भाई को गँवाकर वे किस मुँह से अयोध्या जाएँगे और कलंक सहेंगे।
3. द्वंद्व का समन्वय (ईश्वरीय और मानवीय भूमिका का संतुलन)
राम के इस गहन शोक-प्रदर्शन के बाद, कवि तुरंत राम के ईश्वरीय स्वरूप का समन्वय भी प्रस्तुत करते हैं।
नर लीला का प्रदर्शन: विलाप के अंत में कवि तुलसीदास ने स्पष्ट किया है कि शोक दूर करने वाले रघुनाथ (राम) आँसू बहाते हुए (स्रवत सलिल) यह नर गति (मानवीय व्यवहार) इसलिए दिखा रहे हैं:
"उमा एक अखंड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई।" अर्थात्, शिव (उमा को संबोधित करते हुए) कहते हैं कि रघुराई तो अखंड (अविनाशी ईश्वर) हैं, लेकिन कृपालु प्रभु ने यह मानवीय लीला (नर गति) भक्तों को दिखाने के लिए की है।
इस प्रकार, तुलसीदास ने राम को दुःख और मोह से परे ईश्वर के रूप में स्वीकार किया, लेकिन साथ ही उन्हें अपने समय और समाज के आदर्शों के अनुरूप मानवीय भावनाओं और सीमाओं के साथ प्रस्तुत किया, जिससे वह चरित्र जनसामान्य के लिए लोकग्राह्य (स्वीकार्य) हो गया। यह द्वंद्व-चित्रण ही उन्हें विद्वानों तथा जनसामान्य में समान रूप से लोकप्रिय बनाता है।
तुलसीदास का युगीन यथार्थ विविध विषमताओं से ग्रस्त 'कलियुग' था। कवि की दृष्टि इन विषमताओं का यथार्थ चित्रण करने, उनकी पीड़ा को महसूस करने और फिर रामभक्ति तथा आदर्श (रामराज्य) के माध्यम से उनका समन्वय व समाधान प्रस्तुत करने की थी।
1. युगीन आर्थिक विषमताओं के प्रति कवि की दृष्टि
तुलसीदास को युग का गहरा बोध था, और उन्होंने आर्थिक संकटों को बहुत यथार्थवादी ढंग से चित्रित किया।
कष्ट का यथार्थ चित्रण
कवि ने संसार के समस्त क्रियाकलापों का आधार 'पेट की आग' के दारुण व गहन यथार्थ को माना है, जिसे वे बड़वाग्नि (समुद्र की आग) से भी बड़ा बताते हैं। उनकी दृष्टि में, यह आग इतनी भीषण है कि इसके लिए समाज के सभी वर्ग (कारीगर, किसान, व्यापारी, भिखारी, सेवक, चोर, नट):
ऊँचे-नीचे कर्म, धर्म और अधर्म करके भी इसी 'पेट' के लिए परेशान होते हैं।
यहाँ तक कि अपने बेटा-बेटी तक बेच डालते हैं ("पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी")।
बेकारी और गरीबी का यथार्थपरक चित्रण
तुलसीदास ने प्रकृति और शासन की विषमता से उपजी बेकारी और गरीबी की पीड़ा का यथार्थपरक चित्रण किया है।
वे दर्शाते हैं कि किसान के पास खेती नहीं है, भिखारी को भीख नहीं मिल रही, व्यापारी के पास व्यापार नहीं है, और चाकर को चाकरी नहीं है।
जीविका विहीन लोग (जीविका बिहीन लोग) सोच (चिंता) के वश में होकर पीड़ित हैं, और आपस में पूछते हैं कि "कहाँ जाइ, का करी" (कहाँ जाएँ, क्या करें)।
तुलसीदास ने इस दारिद्रय (गरीबी) को 'दारिद्र-दशानन' (गरीबी रूपी रावण) से उपमित किया है, जिसने पूरी दुनिया को दबा रखा है।
आर्थिक विषमता का समाधान
आर्थिक विषमता के प्रति कवि की दृष्टि निराशावादी नहीं थी, बल्कि वह रामभक्ति में इस संकट का समाधान देखती है:
वे इस दारुण संकट का समाधान राम-रूपी घनश्याम (मेघ) के कृपा-जल में देखते हैं।
उनकी राम-भक्ति पेट की आग बुझाने वाली यानी जीवन के यथार्थ संकटों का समाधान करने वाली है, साथ ही जीवन से परे आध्यात्मिक मुक्ति देने वाली भी है।
वे राम को 'दीनबंधु' (गरीबों के बंधु) कहकर संबोधित करते हैं और उनसे दुख (दुरित-दहन) देखकर कृपा करने की विनती करते हैं।
2. युगीन सामाजिक विषमताओं के प्रति कवि की दृष्टि
तुलसीदास की दृष्टि ने सामाजिक विषमताओं, विशेष रूप से जात-पाँत और धर्म के विभेदक दुराग्रहों को अस्वीकार किया। यह दृष्टि कवितावली के सवैया में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है:
जात-पाँत का तिरस्कार और स्वाभिमानी भक्त
तुलसीदास ने भक्ति की गहनता और सघनता में उपजे आत्मविश्वास का सजीव चित्रण किया है। वे समाज में प्रचलित किसी भी पहचान (धूत, अवधूत, राजपूत, जोलहा) की परवाह नहीं करते।
वह स्पष्ट घोषणा करते हैं कि "काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ" (न मैं किसी की बेटी से बेटा ब्याहूँगा और न ही किसी की जाति बिगाड़ूँगा)। यह कथन सामाजिक भेद-भावमूलक माहौल में जाति-पाँत के दुराग्रहों के तिरस्कार का साहस उत्पन्न करता है।
वे स्वयं को 'राम का प्रसिद्ध गुलाम' ("तुलसी सरनाम गुलामू है राम को") घोषित करते हैं।
वह कहते हैं कि वे माँग कर खाएँगे और मस्जिद (मसीत) में सोएँगे, उन्हें किसी से न कुछ लेना है और न कुछ देना है ("लैबोंको एकु न दैबोंको दोऊ")। यह दृष्टि ऊपरी तौर पर सरल या निरीह दिखाई देने वाले तुलसी की भीतरी असलियत, जो एक स्वाभिमानी भक्त हृदय की है, को दर्शाती है।
इस प्रकार, सामाजिक रूढ़ियों और विषमताओं के प्रति कवि की दृष्टि भक्ति की रचनात्मक भूमिका को दर्शाती है।
3. रामचरितमानस में समन्वय की दृष्टि
रामचरितमानस में विषमताओं के प्रति कवि की दृष्टि लोक-संवेदना और समन्वय की थी।
लोक-मंगल और समन्वय: तुलसीदास दार्शनिक और लौकिक स्तर के नाना द्वंद्वों (अनेक द्वंदों) के चित्रण और उनके समन्वय के कवि हैं। यह समन्वय उनकी ऊपरी विभिन्नता में निहित एक ही मानवीय सूत्र को उपलब्ध कराकर संसार में एकता और शांति का मार्ग प्रशस्त करता है, जो लोक-कल्याण का मूल आधार है।
आदर्शों की स्थापना: रामचरितमानस की लोकप्रियता के पीछे सीताराम कथा से अधिक लोक-संवेदना और समाज की नैतिक बनावट की समझ है।
उनके राम ईश्वर की अपेक्षा तुलसी के देश-काल के आदर्शों के अनुरूप मानवीय धरातल पर पुनः सृष्ट चरित्र हैं। वे ग्रामीण और कृषक संस्कृति तथा रक्त संबंध की मर्यादा पर आधारित आदर्शवृत्त गृहस्थ जीवन के चितेरे कवि हैं।
संक्षेप में, तुलसीदास ने कवितावली में आर्थिक और सामाजिक विषमताओं का गहरा, यथार्थवादी चित्रण किया और उसका तात्कालिक समाधान राम की कृपा में देखा, जबकि रामचरितमानस में उन्होंने आदर्श गृहस्थ जीवन और समन्वय की व्यापक दृष्टि प्रस्तुत की, जो समाज में एकता और शांति स्थापित करने का माध्यम बनी।
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