शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

उपभोक्तावाद की संस्कृति: एक अध्ययन मार्गदर्शिका

यह अध्ययन मार्गदर्शिका श्यामाचरण दुबे द्वारा लिखित निबंध "उपभोक्तावाद की संस्कृति" की गहरी समझ प्रदान करने के लिए तैयार की गई है। इस दस्तावेज़ का उद्देश्य निबंध के मूल विषयों, तर्कों और प्रमुख अवधारणाओं की समीक्षा करना है, जिससे पाठक इस महत्वपूर्ण सामाजिक विश्लेषण को बेहतर ढंग से समझ सकें। लेखक परिचय: श्यामाचरण दुबे श्यामाचरण दुबे (1922-1996) भारत के एक अग्रणी समाज वैज्ञानिक थे, जिनका जन्म मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में हुआ था। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से मानव विज्ञान में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। प्रो. दुबे ने विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्यापन कार्य किया और अनेक प्रतिष्ठित संस्थानों में प्रमुख पदों पर रहे। उनकी प्रमुख कृतियों में मानव और संस्कृति, परंपरा और इतिहास बोध, संस्कृति तथा शिक्षा, समाज और भविष्य, भारतीय ग्राम, संक्रमण की पीड़ा, विकास का समाजशास्त्र, और समय और संस्कृति शामिल हैं। उनके लेख, जो विशेष रूप से भारत की जनजातियों और ग्रामीण समुदायों पर केंद्रित थे, ने एक बड़े समुदाय का ध्यान आकर्षित किया। वे जटिल विचारों को तार्किक विश्लेषण के साथ सहज भाषा में प्रस्तुत करने के लिए जाने जाते थे। लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तरी निर्देश: निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दो से तीन वाक्यों में दें। उपभोक्तावाद के नए दर्शन के अनुसार 'सुख' की बदली हुई परिभाषा क्या है? विज्ञापन टूथपेस्ट जैसे दैनिक उपयोग के उत्पादों की खरीद को कैसे प्रभावित करते हैं? लेखक के अनुसार, महँगी घड़ियाँ और सौंदर्य सामग्री जैसी वस्तुएँ 'प्रतिष्ठा-चिह्न' कैसे बन जाती हैं? निबंध में वर्णित 'पाँच-सितारा संस्कृति' का विस्तार कहाँ-कहाँ तक हो गया है? लेखक क्यों मानते हैं कि भारत पश्चिम का 'सांस्कृतिक उपनिवेश' बनता जा रहा है? समाज में 'दिखावे की संस्कृति' के फैलने के दो प्रमुख नकारात्मक परिणाम क्या होंगे? उपभोक्ता संस्कृति हमारे सीमित संसाधनों के 'घोर अपव्यय' का कारण कैसे बनती है? गांधी जी ने सांस्कृतिक प्रभावों के विषय में क्या सलाह दी थी और उपभोक्ता संस्कृति उस सलाह के विरुद्ध कैसे जाती है? पाठ के अनुसार 'छद्म आधुनिकता' से क्या तात्पर्य है? विज्ञापन और प्रसार के 'सूक्ष्म तंत्र' हमारी मानसिकता को बदलने के लिए किन शक्तियों का उपयोग करते हैं? -------------------------------------------------------------------------------- प्रश्नोत्तरी उत्तर कुंजी उपभोक्तावाद के नए दर्शन के अनुसार, 'सुख' की परिभाषा बदल गई है और अब उपभोग-भोग को ही सुख माना जाता है। यह दर्शन सिखाता है कि वस्तुओं का उपभोग और भोग ही जीवन का परम सुख है। इस नई स्थिति में, व्यक्ति अनजाने में उत्पाद को समर्पित होता जा रहा है। विज्ञापन टूथपेस्ट को चमत्कारी गुणों वाला उत्पाद बताते हैं, जैसे दाँतों को मोती जैसा चमकीला बनाना, मुँह की दुर्गंध हटाना या पूर्ण सुरक्षा देना। वे किसी में नीम के गुण बताते हैं, तो किसी को ऋषि-मुनियों द्वारा स्वीकृत बताकर उपभोक्ता को गुणवत्ता के बजाय ब्रांड और प्रचार के आधार पर खरीदने के लिए लुभाते हैं। लेखक के अनुसार, लोग पचास हजार से डेढ़ लाख तक की घड़ी केवल हैसियत जताने के लिए खरीदते हैं, समय देखने के लिए नहीं। इसी प्रकार, पेरिस से मँगाया गया परफ्यूम और तीस-तीस हजार की सौंदर्य सामग्री समाज में प्रतिष्ठा और हैसियत दिखाने का प्रतीक बन गई है। 'पाँच-सितारा संस्कृति' का विस्तार अब केवल होटलों तक सीमित नहीं है, बल्कि विवाह समारोह, अस्पताल, और पब्लिक स्कूल भी पाँच-सितारा हो गए हैं। लेखक का अनुमान है कि जल्द ही कॉलेज और विश्वविद्यालय भी इस संस्कृति का हिस्सा बन सकते हैं, जो इसे एक चर्चा का विषय और अनुभव बनाता है। लेखक का मानना है कि हम बौद्धिक दासता स्वीकार कर पश्चिम के सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहे हैं क्योंकि हमारी नई संस्कृति 'अनुकरण की संस्कृति' है। हम आधुनिकता के झूठे प्रतिमान अपना रहे हैं और अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को खोकर प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्धा में शामिल हो रहे हैं। लेखक के अनुसार, जैसे-जैसे 'दिखावे की संस्कृति' फैलेगी, समाज में वर्गों की दूरी बढ़ेगी, जिससे सामाजिक अशांति और आक्रोश को जन्म मिलेगा। इसके अतिरिक्त, इससे हमारी सांस्कृतिक पहचान का ह्रास होगा और हम विकास के विराट उद्देश्यों से भटक जाएँगे। उपभोक्ता संस्कृति सीमित संसाधनों का घोर अपव्यय करती है क्योंकि यह लोगों को आलू के चिप्स और बहुविज्ञापित शीतल पेयों जैसी वस्तुओं पर खर्च करने के लिए प्रेरित करती है, जिनसे जीवन की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं होता। लेखक पिज्जा और बर्गर जैसे खाद्य पदार्थों को 'कूड़ा खाद्य' कहते हैं जो आधुनिक होने के बावजूद संसाधनों की बर्बादी हैं। गांधी जी ने कहा था कि हमें स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभावों के लिए अपने दरवाजे-खिड़की खुले रखने चाहिए, परंतु अपनी बुनियाद पर कायम रहना चाहिए। उपभोक्ता संस्कृति हमारी सामाजिक नींव को ही हिलाकर इस विचार का खंडन करती है, जो भविष्य के लिए एक बड़ा खतरा और चुनौती है। 'छद्म आधुनिकता' का अर्थ है आधुनिकता को वैचारिक आग्रह के साथ स्वीकार न करके केवल फैशन के रूप में अपनाना। इसमें व्यक्ति प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्धा में अपनी पहचान खो देता है और बिना तार्किक व वैज्ञानिक दृष्टि अपनाए केवल दिखावे के लिए आधुनिक बनने का प्रयास करता है। विज्ञापन और प्रसार के सूक्ष्म तंत्र हमारी मानसिकता को बदलने के लिए सम्मोहन और वशीकरण की शक्ति का उपयोग करते हैं। ये तंत्र उत्पादों के चारों ओर एक आकर्षक दुनिया रचते हैं, जिससे उपभोक्ता मानसिक रूप से उनके प्रभाव में आ जाता है और उन उत्पादों के प्रति समर्पित होने लगता है। -------------------------------------------------------------------------------- निबंधात्मक प्रश्न निर्देश: निम्नलिखित प्रश्नों पर अपने विचार विस्तार से लिखिए। (उत्तर प्रदान नहीं किए गए हैं) "जैसे-जैसे यह दिखावे की संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशांति और विषमता भी बढ़ेगी।" पाठ के आधार पर इस कथन का विश्लेषण करें। लेखक उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए एक चुनौती क्यों मानते हैं? विस्तार से वर्णन करें कि यह संस्कृति हमारी सामाजिक नींव और नैतिक मानदंडों को कैसे प्रभावित कर रही है। 'अनुकरण की संस्कृति' और 'बौद्धिक दासता' की अवधारणाओं की व्याख्या करें। लेखक के अनुसार, ये भारतीय सांस्कृतिक अस्मिता को कैसे कमजोर कर रहे हैं? विज्ञापन और उपभोक्तावाद व्यक्ति-केंद्रिकता और स्वार्थ को किस प्रकार बढ़ावा दे रहे हैं? पाठ में दिए गए उदाहरणों का उपयोग करके स्पष्ट करें। गांधीजी के 'अपनी बुनियाद पर कायम रहने' के विचार और उपभोक्तावाद के दर्शन के बीच के द्वंद्व पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी लिखें। -------------------------------------------------------------------------------- शब्दावली शब्द परिभाषा वर्चस्व प्रधानता विज्ञापित प्रचारित/सूचित अनंत जिसका अंत न हो सौंदर्य प्रसाधन सुंदरता बढ़ाने वाली सामग्री परिधान वस्त्र अस्मिता अस्तित्व, पहचान अवमूल्यन मूल्य गिरा देना क्षरण नाश उपनिवेश वह विजित देश जिसमें विजेता राष्ट्र के लोग आकर बस गए हों प्रतिमान मानदंड प्रतिस्पर्धा होड़ छद्म बनावटी दिग्भ्रमित रास्ते से भटकना, दिशाहीन वशीकरण वश में करना अपव्यय फ़िजूलखर्ची तात्कालिक उसी समय का परमार्थ दूसरों की भलाई सांस्कृतिक अस्मिता हम भारतीयों की अपनी एक सांस्कृतिक पहचान है। यह सांस्कृतिक पहचान भारत की विभिन्न संस्कृतियों के मेल-जोल से बनी है। इस मिली-जुली सांस्कृतिक पहचान को ही हम सांस्कृतिक अस्मिता कहते हैं। सांस्कृतिक उपनिवेश विजेता देश जिन देशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करता है, वे देश उसके उपनिवेश कहलाते हैं। सामान्यतया विजेता देश की संस्कृति विजित देशों पर लादी जाती है, दूसरी तरफ़ हीनता ग्रंथि वश विजित देश विजेता देश की संस्कृति को अपनाने भी लगते हैं। लंबे समय तक विजेता देश की संस्कृति को अपनाए रखना सांस्कृतिक उपनिवेश बनना है। बौद्धिक दासता अन्य को श्रेष्ठ समझकर उसकी बौद्धिकता के प्रति बिना आलोचनात्मक दृष्टि अपनाए उसे स्वीकार कर लेना बौद्धिक दासता है। छद्म आधुनिकता आधुनिकता का सरोकार विचार और व्यवहार दोनों से है। तर्कशील, वैज्ञानिक और आलोचनात्मक दृष्टि के साथ नवीनता का स्वीकार आधुनिकता है। जब हम आधुनिकता को वैचारिक आग्रह के साथ स्वीकार न कर उसे फ़ैशन के रूप में अपना लेते हैं तो वह छद्म आधुनिकता कहलाती है। उपभोक्तावादी संस्कृति का एक विश्लेषणात्मक अध्ययन: श्यामाचरण दुबे के दृष्टिकोण में सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव परिचय: उपभोक्तावाद की संस्कृति का उदय प्रसिद्ध समाज विज्ञानी श्यामाचरण दुबे द्वारा पहचाने गए एक नए और প্রভাবশালী जीवन-दर्शन, 'उपभोक्तावाद की संस्कृति', का विश्लेषण करना आज के सामाजिक परिदृश्य को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह रिपोर्ट दुबे के विश्लेषण के आधार पर इस संस्कृति के मूल सिद्धांतों, इसके वाहकों और समाज पर पड़ने वाले इसके गहरे परिणामों का विश्लेषण करती है। दुबे का केंद्रीय तर्क यह है कि बाज़ार के ग्लैमर और आकर्षण में फँसा हुआ समाज, वस्तुओं की गुणवत्ता के बजाय उनके उपभोग को प्राथमिकता दे रहा है, जिससे सामाजिक मूल्यों और संरचना में एक चिंताजनक बदलाव आ रहा है। यह रिपोर्ट क्रमशः सुख की बदलती परिभाषा, सांस्कृतिक पहचान के क्षरण और इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न हो रही सामाजिक अशांति की गहन विवेचना करेगी। 1. 'सुख' का बदलता दर्शन: उपभोग ही सुख है उपभोक्तावाद द्वारा लाए गए मूलभूत दार्शनिक बदलाव को समझना रणनीतिक रूप से आवश्यक है, क्योंकि यही वह केंद्रीय परिवर्तन है जिससे अन्य सभी सामाजिक परिणाम उत्पन्न होते हैं। यह संस्कृति 'सुख' की पारंपरिक अवधारणा को पूरी तरह से बदल देती है। इसके अनुसार, अब सुख की परिभाषा बदल गई है और यह मान लिया गया है कि "उपभोग-भोग ही सुख है"। इस प्रकार, वस्तुओं का अधिकाधिक उपभोग करना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य और सुख का पर्याय बन गया है। इस वैचारिक बदलाव का मनोवैज्ञानिक प्रभाव अत्यंत गहरा है। इस नए माहौल में, व्यक्ति अनजाने में अपने चरित्र को बदल देता है और पूरी तरह से उत्पाद के प्रति समर्पित हो जाता है ("आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं")। यह परिवर्तन व्यक्ति के चरित्र को बदल देता है, जहाँ उसका झुकाव और निष्ठा धीरे-धीरे उत्पादों के प्रति हो जाती है, और वह बाज़ार की शक्तियों द्वारा अनजाने में ही निर्देशित होने लगता है। यह नया दर्शन उन तंत्रों द्वारा सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया जाता है जो आकर्षण और अनुकरण पर आधारित हैं। 2. उपभोक्तावादी संस्कृति के वाहक: आकर्षण और अनुकरण इस खंड का उद्देश्य उन प्रमुख शक्तियों की पहचान और विश्लेषण करना है जो समाज में उपभोक्तावादी संस्कृति को अपनाने की प्रक्रिया को तीव्र कर रही हैं। इनमें विज्ञापन की सम्मोहन शक्ति और समाज के अभिजात्य वर्ग का अनुकरण प्रमुख हैं। 2.1 विज्ञापन की सम्मोहन शक्ति उपभोक्तावाद के प्रसार में विज्ञापनों की भूमिका केंद्रीय है। जैसा कि दुबे बताते हैं, "विज्ञापन और प्रसार के सूक्ष्म तंत्र हमारी मानसिकता बदल रहे हैं"। इन तंत्रों में सम्मोहन और वशीकरण की शक्ति है, जो लोगों को तर्क और गुणवत्ता पर विचार किए बिना उत्पादों को खरीदने के लिए प्रेरित करती है। रोज़मर्रा के उत्पादों के लिए अपनाई जाने वाली विपणन रणनीतियाँ इस तथ्य को स्पष्ट करती हैं: टूथपेस्ट: विज्ञापनों में यह दावा किया जाता है कि कोई टूथपेस्ट दाँतों को "मोती जैसा चमकीला" बनाता है, मुँह की दुर्गंध हटाता है, मसूड़ों को मज़बूत करता है और "पूर्ण सुरक्षा" देता है। इसे विश्वसनीय बनाने के लिए "मैजिक फ़ार्मूला" और नीम जैसे प्राकृतिक अवयवों का हवाला दिया जाता है। साबुन: कोई साबुन हल्की खुशबू और दिन भर की ताजगी का वादा करता है, तो कोई पसीना रोकने और कीटाणुओं से रक्षा करने का। कुछ साबुन "सिने स्टार्स के सौंदर्य का रहस्य" बताते हैं, तो कुछ "शुद्ध गंगाजल से बने" होने का दावा कर पवित्रता का आश्वासन देते हैं। इस विश्लेषण का सार यह है कि ये विज्ञापन उत्पाद की वास्तविक गुणवत्ता के बजाय आकर्षण और लुभावने वादों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे उपभोक्ता का ध्यान गुणवत्ता से हटकर केवल दिखावे पर केंद्रित हो जाता है ("हमारी निगाह गुणवत्ता पर नहीं है")। 2.2 अभिजात्य वर्ग का प्रदर्शनपूर्ण जीवन उपभोक्तावाद का दूसरा प्रमुख वाहक समाज का संपन्न और अभिजात्य वर्ग है, जो एक "प्रदर्शनपूर्ण जीवन शैली" अपनाता है। इस वर्ग का जीवन आम आदमी के लिए एक आदर्श बन जाता है, जिसे "सामान्य जन भी ललचाई निगाहों से देखते हैं"। इस जीवन शैली में वस्तुओं का उपयोग उनकी उपयोगिता के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक हैसियत दिखाने वाले "प्रतिष्ठा-चिह्न" के रूप में होता है। वस्तु (Item) उपयोगिता (Utility) प्रतिष्ठा मूल्य (Prestige Value) घड़ी (Watch) समय दिखाना (Telling time) पचास-साठ हज़ार से लाख-डेढ़ लाख की घड़ी संगीत सिस्टम (Music System) संगीत सुनना (Listening to music) कीमती म्यूजिक सिस्टम, भले ही चलाना न आता हो कंप्यूटर (Computer) काम के लिए (For work) महज़ दिखावे के लिए खरीदना सेवाएँ (Services) आवश्यकता पूर्ति (Fulfilling a need) पाँच सितारा होटल, अस्पताल, और स्कूल यह प्रदर्शनपूर्ण जीवन शैली एक ऐसा सामाजिक दबाव बनाती है जो अनुकरण को बढ़ावा देता है, और यही तंत्र समाज की सांस्कृतिक पहचान को गंभीर रूप से क्षति पहुँचाता है। 3. सांस्कृतिक अस्मिता का क्षरण अनियंत्रित उपभोक्तावाद का सबसे गंभीर परिणाम सांस्कृतिक पहचान का क्षरण है, क्योंकि यह समाज की बुनियाद को ही खतरे में डाल देता है। जब कोई समाज अपनी परंपराओं और मूल्यों को त्यागकर बाहरी और सतही मानकों को अपना लेता है, तो वह अपनी सामूहिक पहचान खो देता है। 3.1 छद्म-आधुनिकता की गिरफ्त उपभोक्तावाद "छद्म-आधुनिकता" (pseudo-modernity) को जन्म देता है। यह सच्ची आधुनिकता से भिन्न है, जो तर्कसंगत, वैज्ञानिक और आलोचनात्मक दृष्टि पर आधारित होती है। इसके विपरीत, छद्म-आधुनिकता केवल पश्चिमी फैशन और जीवन शैली का अंधानुकरण है, जिसमें वैचारिक गहराई का अभाव होता है। दुबे के अनुसार, समाज "प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्धा" में शामिल होकर "जो अपना है उसे खोकर" इस छद्म-आधुनिकता की गिरफ्त में आता जा रहा है। यह समाज को दिशाहीन बना देता है, क्योंकि वह अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कट जाता है। 3.2 बौद्धिक दासता और सांस्कृतिक उपनिवेश यह प्रक्रिया अंततः समाज को "बौद्धिक दासता" (intellectual slavery) की ओर ले जाती है, जहाँ वह पश्चिम को श्रेष्ठ मानकर उसके सांस्कृतिक मानदंडों को बिना सोचे-समझे स्वीकार कर लेता है। इसके परिणामस्वरूप, हमारा समाज पश्चिम का एक "सांस्कृतिक उपनिवेश" (cultural colony) बनकर रह जाता है। इस प्रक्रिया में हमारी "परंपराओं का अवमूल्यन" होता है और "आस्थाओं का क्षरण" होता है, क्योंकि जो कुछ भी स्थानीय या पारंपरिक है, उसे पिछड़ा हुआ मान लिया जाता है। यह सांस्कृतिक क्षरण समाज में ठोस और दृश्यमान अशांति को जन्म देता है। 4. सामाजिक परिणाम: अशांति और दिशाभ्रम यह खंड "दिखावे की संस्कृति" के परिणामस्वरूप सामाजिक ताने-बाने में प्रकट होने वाले ठोस और नकारात्मक परिणामों की जाँच करता है। उपभोक्तावाद केवल एक व्यक्तिगत जीवन शैली नहीं है, बल्कि यह गंभीर सामाजिक विकृतियों को जन्म देता है। बढ़ती सामाजिक विषमता और अशांति (Increasing Social Inequality and Unrest): जैसे-जैसे दिखावे की संस्कृति फैलती है, समाज में जीवन-स्तर का अंतर बढ़ता जाता है। यह बढ़ती दूरी समाज में "आक्रोश" और "सामाजिक अशांति" को जन्म देती है, क्योंकि एक बड़ा वर्ग उन उपभोग-मानकों तक नहीं पहुँच पाता, जिन्हें समाज में प्रतिष्ठा का पैमाना मान लिया गया है। संसाधनों का घोर अपव्यय (Gross Misuse of Resources): देश के सीमित संसाधनों का अनावश्यक वस्तुओं पर घोर अपव्यय होता है। जैसा कि दुबे बताते हैं, जीवन की गुणवत्ता आलू के चिप्स या बहु-विज्ञापित शीतल पेयों जैसे उत्पादों से नहीं सुधरती, भले ही वे अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड के हों। मूल्यों का पतन (Degradation of Values): उपभोक्तावादी संस्कृति सामाजिक नैतिकता को कमजोर करती है। व्यक्ति-केंद्रितता बढ़ती है और "स्वार्थ परमार्थ पर हावी हो रहा है"। सामाजिक बंधन और "मर्यादाएँ टूट रही हैं", तथा "नैतिक मानदंड ढीले पड़ रहे हैं"। भोग की असीमित आकांक्षाएँ समाज को नैतिक रूप से खोखला बना देती हैं। लक्ष्य-भ्रम (Distraction from Core Goals): समाज "विकास के विराट उद्देश्य" से भटक जाता है। राष्ट्र-निर्माण, शिक्षा और समानता जैसे बड़े लक्ष्यों के बजाय, समाज "झूठी तुष्टि के तात्कालिक लक्ष्यों का पीछा" करने में लग जाता है। यह दिशाहीनता देश को प्रगति के वास्तविक मार्ग से विचलित कर देती है। ये सामाजिक परिणाम अंततः एक गंभीर चेतावनी की ओर ले जाते हैं, जैसा कि लेखक ने निष्कर्ष में स्पष्ट किया है। 5. निष्कर्ष: एक गंभीर चुनौती अंततः, श्यामाचरण दुबे यह स्पष्ट करते हैं कि उपभोक्तावादी संस्कृति का फैलाव "गंभीर चिंता का विषय" है। यह केवल जीवन शैली में बदलाव नहीं, बल्कि समाज के अस्तित्व के लिए एक खतरा है। इस संदर्भ में, गांधी जी का दृष्टिकोण एक शक्तिशाली चेतावनी के रूप में कार्य करता है। गांधी जी ने सलाह दी थी कि हमें स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभावों के लिए अपने दरवाज़े-खिड़की खुले रखने चाहिए, परंतु "अपनी बुनियाद पर कायम रहें"। उपभोक्तावादी संस्कृति ठीक इसी सामाजिक नींव को हिला रही है। यह हमारी सांस्कृतिक पहचान, सामाजिक सद्भाव और नैतिक मूल्यों को नष्ट कर रही है, जिससे यह "एक बड़ा खतरा" बन गई है। यदि इस प्रवृत्ति को नियंत्रित नहीं किया गया, तो "भविष्य के लिए यह एक बड़ी चुनौती है" जो हमारे समाज के अस्तित्व को ही संकट में डाल सकती है। उपभोक्तावाद सामाजिक असमानता और अशांति को बढ़ावा देकर संस्कृति को निम्नलिखित तरीकों से प्रभावित कर रहा है, जैसा कि श्यामाचरण दुबे के निबंध के उद्धरणों में दर्शाया गया है: संस्कृति पर उपभोक्तावाद का प्रभाव उपभोक्तावाद धीरे-धीरे एक नई जीवन-शैली और एक नया जीवन-दर्शन स्थापित कर रहा है। यह दर्शन उपभोग-भोग को ही 'सुख' की नई परिभाषा मानता है। जाने-अनजाने में, इस माहौल में लोगों का चरित्र बदल रहा है और वे उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं। यह संस्कृति हमारी सामाजिक नींव को हिला रही है, जिसे गांधी जी ने भविष्य के लिए एक बड़ा खतरा और चुनौती बताया था। सांस्कृतिक पहचान का क्षरण: हम सांस्कृतिक अस्मिता (पहचान) की बात करते हैं, लेकिन वास्तव में, परंपराओं का अवमूल्यन हुआ है और आस्थाओं का क्षरण हुआ है। हम पश्चिमी सभ्यता की बौद्धिक दासता स्वीकार कर रहे हैं और उसके सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहे हैं। हमारी नई संस्कृति अनुकरण की संस्कृति है। हम प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्धा में जो हमारा अपना है, उसे खोकर छद्म आधुनिकता (बनावटी आधुनिकता) की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। संस्कृति की नियंत्रक शक्तियाँ क्षीण हो जाने के कारण हम दिग्भ्रमित हो रहे हैं। उपभोक्तावाद के कारण हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का ह्रास हो रहा है। सामाजिक असमानता (विषमता) को बढ़ावा: उपभोक्तावाद ने दिखावे की संस्कृति को परोसा है। बाजार विलासिता की ऐसी सामग्रियों से भरा पड़ा है जो लगातार लोगों को लुभाने की कोशिश करती हैं। संपन्न और अभिजन वर्ग द्वारा प्रदर्शनपूर्ण जीवन शैली अपनाई जा रही है। उदाहरण के लिए, संभ्रांत महिलाओं की ड्रेसिंग टेबल पर तीस-तीस हजार की सौंदर्य सामग्री होना या लाखों की घड़ी खरीदना आम बात हो गई है। ये महँगी वस्तुएँ और सेवाएँ (जैसे पाँच सितारा होटलों में विवाह, महँगे परफ्यूम, या लाखों की घड़ियाँ) प्रतिष्ठा-चिह्न हैं, जो समाज में व्यक्ति की हैसियत दर्शाते हैं। यह विशिष्टजन का समाज है, पर सामान्य जन भी इसे ललचाई निगाहों से देखते हैं। विज्ञापन की भाषा में, वे मानते हैं कि यही 'राइट चॉइस बेबी' है। इस दिखावे की संस्कृति के कारण समाज में वर्गों की दूरी बढ़ रही है। जीवन स्तर का यह बढ़ता अंतर (असमानता) सामाजिक सरोकारों में कमी ला रहा है। सामाजिक अशांति (आक्रोश) को जन्म: लेखक का मानना है कि जैसे-जैसे यह दिखावे की संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशांति और विषमता भी बढ़ेगी। जीवन स्तर का यह बढ़ता अंतर आक्रोश और अशांति को जन्म दे रहा है। इसके अतिरिक्त, इस संस्कृति के फैलाव से हमारे सीमित संसाधनों का घोर अपव्यय (फिजूलखर्ची) हो रहा है। मर्यादाएँ टूट रही हैं और नैतिक मानदंड ढीले पड़ रहे हैं। व्यक्ति-केंद्रकता बढ़ रही है, और स्वार्थ परमार्थ पर हावी हो रहा है। भोग की आकांक्षाएँ आसमान को छू रही हैं। उपभोक्तावाद दिखावे को महत्व देकर, वर्गों के बीच दूरी बढ़ाकर, और भौतिकवाद को बढ़ावा देकर सांस्कृतिक मूल्यों को कमजोर कर रहा है, जिससे सामाजिक असमानता और अशांति बढ़ रही है। उपभोक्तावाद का दर्शन धीरे-धीरे स्थापित हो रही नई जीवन-शैली के साथ आ रहा नया जीवन-दर्शन है। श्यामाचरण दुबे के अनुसार, उपभोक्तावाद के दर्शन के मुख्य बिंदु निम्नलिखित हैं: सुख की बदलती परिभाषा: उपभोक्तावाद के दर्शन में 'सुख' की व्याख्या बदल गई है। यह दर्शन यह मानता है कि उपभोग-भोग ही सुख है। उत्पादन पर जोर: इस दर्शन में चारों ओर उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया जाता है। यह उत्पादन उपभोक्ता के लिए है—उसके भोग के लिए और उसके सुख के लिए। व्यक्ति का उत्पाद के प्रति समर्पण: इस नई स्थिति में एक सूक्ष्म बदलाव आया है। जहाँ उत्पाद उपभोक्ता के लिए होते हैं, वहीं जाने-अनजाने आज के माहौल में व्यक्ति का चरित्र बदल रहा है और वह उत्पाद को समर्पित होता जा रहा है। उपभोक्तावाद का दर्शन भोग और उपभोग को ही जीवन का अंतिम सुख और लक्ष्य मानता है, जिसके कारण मनुष्य की दृष्टि गुणवत्ता (गुणवत्ता) पर नहीं रहती, बल्कि वह विज्ञापन की चमक-दमक के पीछे भागता है। उपभोक्ता संस्कृति का फैलाव (विकास) भारत में क्यों हो रहा है, यह श्यामाचरण दुबे के निबंध का एक गंभीर विषय है। लेखक के अनुसार, भारत में उपभोक्ता संस्कृति के विकास और फैलाव के निम्नलिखित मुख्य कारण हैं: 1. सामंती संस्कृति का रूपांतरण (Transformation of Feudal Culture): सामंती संस्कृति के तत्व भारत में पहले भी मौजूद थे। उपभोक्तावाद इस पुरानी सामंती संस्कृति से जुड़ा रहा है। वर्तमान में, सामंत (feudal lords) बदल गए हैं, लेकिन सामंती संस्कृति का मुहावरा (idiom) बदल गया है। 2. पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण और बौद्धिक दासता: उपभोक्ता संस्कृति के विकास का एक कड़वा सच यह है कि हम बौद्धिक दासता स्वीकार कर रहे हैं। बौद्धिक दासता का अर्थ है कि बिना आलोचनात्मक दृष्टि अपनाए, दूसरों (पश्चिमी देशों) को श्रेष्ठ समझकर उनकी बौद्धिकता को स्वीकार कर लेना। इसके कारण, हम पश्चिम के सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहे हैं। सांस्कृतिक उपनिवेश बनने का अर्थ है कि हम दूसरे देश की संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं (हीनता ग्रंथि के कारण), जबकि विजेता देश की संस्कृति को विजित देश पर लादा जाता है। परिणामस्वरूप: हमारी नई संस्कृति अनुकरण की संस्कृति बन गई है। हम आधुनिकता के झूठे प्रतिमान (standards) अपनाते जा रहे हैं। हम प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्धा (blind competition for prestige) में जो हमारा अपना है, उसे खोकर छद्म आधुनिकता (बनावटी आधुनिकता) की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। छद्म आधुनिकता तब होती है जब आधुनिकता को वैचारिक आग्रह के साथ स्वीकार न करके केवल फ़ैशन के रूप में अपना लिया जाता है। 3. सांस्कृतिक नियंत्रक शक्तियों का क्षीण होना: संस्कृति की नियंत्रक शक्तियाँ क्षीण (कमजोर) हो गई हैं, जिसके कारण हम दिग्भ्रमित (रास्ते से भटके हुए/दिशाहीन) हो रहे हैं। हमारा समाज अन्य-निर्देशित (other-directed) होता जा रहा है। 4. विज्ञापन और प्रसार का सम्मोहक तंत्र: उपभोक्ता संस्कृति के फैलाव में विज्ञापन और प्रसार के सूक्ष्म तंत्र एक बड़ी भूमिका निभाते हैं। ये तंत्र हमारी मानसिकता बदल रहे हैं। इनमें सम्मोहन (hypnosis) की शक्ति है और वशीकरण (fascination) की भी शक्ति है। बाजार विलासिता की सामग्रियों से भरा पड़ा है, जो लगातार लोगों को लुभाने की जी-तोड़ कोशिश में लगी रहती हैं। ये वस्तुएँ समाज में प्रतिष्ठा-चिह्न (status symbols) के रूप में काम करती हैं, जिन्हें सामान्य जन भी ललचाई निगाहों से देखते हैं। विज्ञापन की भाषा में, वे इसे ही 'राइट चॉइस बेबी' मानते हैं। श्यामाचरण दुबे के निबंध के अनुसार, वर्तमान उपभोक्तावादी संस्कृति में 'सुख' की परिभाषा बदल गई है। उपभोक्तावाद के नए जीवन-दर्शन के अनुसार, वर्तमान में उपभोग-भोग ही सुख है। इस दर्शन का सार यह है: एक नई जीवन-शैली अपना वर्चस्व स्थापित कर रही है, और इसके साथ ही उपभोक्तावाद का एक नया जीवन-दर्शन भी आ रहा है। चारों ओर उत्पादन बढ़ाने पर ज़ोर है, और यह उत्पादन उपभोक्ता के भोग और सुख के लिए है। इसी माहौल में, सुख की पुरानी परिभाषा समाप्त हो गई है और अब उपभोग और भोग को ही सुख माना जाता है। इस नए दर्शन के कारण, व्यक्ति का चरित्र बदल रहा है और वह जाने-अनजाने में उत्पाद को समर्पित होता जा रहा है, भले ही उत्पाद उसके लिए बनाए गए हों। श्यामाचरण दुबे के निबंध के उद्धरणों के अनुसार, उपभोक्तावाद निम्नलिखित बातों पर मुख्य रूप से बल देता है: 1. सुख की नई परिभाषा और भोग पर बल (Emphasis on New Definition of Happiness and Enjoyment) उपभोक्तावाद एक नया जीवन-दर्शन स्थापित कर रहा है। यह दर्शन निम्नलिखित बातों पर बल देता है: उत्पादन बढ़ाना: चारों ओर उत्पादन बढ़ाने पर ज़ोर है। उपभोग और भोग: यह उत्पादन उपभोक्ता के भोग के लिए है, उसके सुख के लिए है। सुख ही उपभोग-भोग है: उपभोक्तावाद के दर्शन में 'सुख' की व्याख्या बदल गई है; अब उपभोग-भोग ही सुख है। 2. प्रदर्शनपूर्ण जीवन-शैली और प्रतिष्ठा पर बल (Emphasis on Display and Prestige) उपभोक्तावाद समाज में दिखावे की संस्कृति को बढ़ावा देता है। यह बल देता है कि व्यक्ति को अपनी हैसियत और विशिष्टता दिखानी चाहिए: प्रतिष्ठा-चिह्न (Status Symbols): महँगी और विलासिता की वस्तुएँ (जैसे तीस-तीस हजार की सौंदर्य सामग्री या लाखों की घड़ियाँ) प्रतिष्ठा-चिह्न हैं जो समाज में व्यक्ति की हैसियत दर्शाती हैं। प्रदर्शनपूर्ण जीवन शैली: संपन्न और अभिजन वर्ग द्वारा प्रदर्शनपूर्ण जीवन शैली अपनाई जा रही है। यह संस्कृति सामान्य जन को भी ललचाई निगाहों से देखने के लिए प्रेरित करती है। अनुकरण और छद्म आधुनिकता: यह संस्कृति अनुकरण की संस्कृति है। यह इस बात पर बल देती है कि व्यक्ति को छद्म आधुनिकता (बनावटी आधुनिकता) की गिरफ्त में आकर और प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्धा में शामिल होकर, झूठी तुष्टि के तात्कालिक लक्ष्यों का पीछा करना चाहिए। 3. उत्पाद को समर्पण (Dedication to the Product) एक सूक्ष्म बदलाव आया है जहाँ उपभोक्तावाद इस बात पर बल देता है कि व्यक्ति जाने-अनजाने में उत्पाद को समर्पित होता जाए, भले ही उत्पाद उसके लिए बनाए गए हों। 4. विज्ञापन की चमक-दमक पर बल (Emphasis on Advertisement and Glitter) उपभोक्तावाद उत्पादों की गुणवत्ता पर नहीं, बल्कि विज्ञापन की चमक-दमक पर बल देता है। विज्ञापन और प्रसार के सूक्ष्म तंत्र इस मानसिकता को बदलने पर ज़ोर देते हैं। उपभोक्तावादी जीवन-शैली विज्ञापन और दिखावे की संस्कृति के माध्यम से व्यक्तिगत चरित्र को मौलिक रूप से बदल रही है। यह परिवर्तन कई स्तरों पर हो रहा है, जिससे व्यक्ति उपभोग को ही जीवन का अंतिम लक्ष्य मानकर अपने नैतिक मूल्यों से भटक रहा है। श्यामाचरण दुबे के निबंध के उद्धरणों के आधार पर व्यक्तिगत चरित्र में हो रहे बदलाव निम्नलिखित हैं: 1. सुख की बदलती परिभाषा और उत्पाद के प्रति समर्पण उपभोक्तावाद का दर्शन धीरे-धीरे एक नया जीवन-दर्शन स्थापित कर रहा है। यह दर्शन व्यक्तिगत चरित्र को इस प्रकार बदल रहा है: उपभोग ही सुख: 'सुख' की पुरानी व्याख्या बदल गई है। अब उपभोग-भोग को ही सुख माना जाता है। उत्पाद के प्रति समर्पण: उत्पाद उपभोक्ता के लिए बनाए जाते हैं, लेकिन इस नए माहौल में, व्यक्ति का चरित्र बदल रहा है और वह अनजाने में उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि व्यक्ति की पहचान उसके उपभोग की वस्तुओं से तय होने लगी है। 2. विज्ञापन का सम्मोहक तंत्र और मानसिक परिवर्तन विज्ञापन और प्रसार के सूक्ष्म तंत्र व्यक्ति की मानसिकता को सीधे प्रभावित करके चरित्र बदल रहे हैं। मानसिकता में बदलाव: विज्ञापन के ये सूक्ष्म तंत्र हमारी मानसिकता बदल रहे हैं। सम्मोहन और वशीकरण: इन तंत्रों में सम्मोहन (Hypnosis) की शक्ति है और वशीकरण (Fascination) की भी शक्ति है। यह शक्ति उपभोक्ता को यह सोचने पर मजबूर करती है कि बहु-विज्ञापित और महँगे ब्रांड खरीदना ही सही विकल्प है। गुणवत्ता की उपेक्षा: लोग विज्ञापन की चमक-दमक के कारण वस्तुओं के पीछे भाग रहे हैं, और उनकी निगाह गुणवत्ता पर नहीं है। 3. दिखावे की संस्कृति: हैसियत और प्रतिष्ठा का प्रदर्शन उपभोक्ता संस्कृति दिखावे की संस्कृति को बढ़ावा देती है। वस्तुओं का चयन उपयोगिता के बजाय सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर होता है, जिससे व्यक्तिगत प्राथमिकताएँ और सोच बदल जाती है। प्रतिष्ठा-चिह्न (Status Symbols): विलासिता की सामग्री बाजार में भरी पड़ी है, जो लगातार लुभाने की कोशिश करती हैं। ये वस्तुएँ प्रतिष्ठा-चिह्न बन गई हैं। ये समाज में व्यक्ति की हैसियत (status) जताती हैं। प्रदर्शनपूर्ण जीवन शैली: संपन्न और अभिजन वर्ग द्वारा प्रदर्शनपूर्ण जीवन शैली अपनाई जा रही है। उदाहरण के लिए, संभ्रांत महिलाओं की ड्रेसिंग टेबल पर महँगी सौंदर्य सामग्री, पेरिस से परफ्यूम मंगाना, या लाखों की घड़ियाँ खरीदना। पुरुषों के लिए भी सौंदर्य और विलासिता उत्पादों की सूची दर्जन भर चीज़ों तक पहुँच गई है। छद्म आधुनिकता: व्यक्ति प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्धा में शामिल हो जाता है। वह अपना सब कुछ खोकर छद्म आधुनिकता (बनावटी आधुनिकता) की गिरफ्त में आता जा रहा है, जहाँ आधुनिकता को वैचारिक आग्रह के बजाय केवल फैशन के रूप में अपनाया जाता है। लक्ष्य-भ्रम: दिखावे की इस दौड़ में, व्यक्ति झूठी तुष्टि के तात्कालिक लक्ष्यों का पीछा कर रहा है, जिससे वह लक्ष्य-भ्रम से भी पीड़ित है। 4. नैतिक मूल्यों का क्षरण चरित्र का पतन केवल भौतिक वस्तुओं की चाह तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह नैतिक और सामाजिक मूल्यों को भी प्रभावित करता है: नैतिक मानदंड ढीले पड़ना: इस संस्कृति के फैलाव से मर्यादाएँ टूट रही हैं और नैतिक मानदंड ढीले पड़ रहे हैं। स्वार्थ की प्रधानता: व्यक्ति-केंद्रकता बढ़ रही है, और स्वार्थ परमार्थ (दूसरों की भलाई) पर हावी हो रहा है। असीमित आकांक्षाएँ: भोग की आकांक्षाएँ आसमान को छू रही हैं। श्यामाचरण दुबे के निबंध के उद्धरणों के अनुसार, उपभोक्तावाद सांस्कृतिक पहचान, नैतिक मूल्यों और राष्ट्रीय विकास के लक्ष्यों के लिए एक गंभीर खतरा और चुनौती है। लेखक ने इस बात को 'गंभीर चिंता का विषय' माना है और गांधी जी के विचारों का उल्लेख करते हुए इसे 'एक बड़ा खतरा' बताया है क्योंकि यह हमारी सामाजिक नींव को हिला रहा है। उपभोक्तावाद इन क्षेत्रों को निम्नलिखित तरीकों से प्रभावित करता है: 1. सांस्कृतिक पहचान (सांस्कृतिक अस्मिता) के लिए खतरा उपभोक्ता संस्कृति हमारी सांस्कृतिक अस्मिता (पहचान) के लिए एक सीधा खतरा पैदा करती है: पहचान का ह्रास: उपभोक्ता संस्कृति के फैलाव से हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का ह्रास हो रहा है। परंपराओं का अवमूल्यन और आस्थाओं का क्षरण: हम भले ही सांस्कृतिक अस्मिता की कितनी ही बात करें, लेकिन वास्तव में, परंपराओं का अवमूल्यन हुआ है और आस्थाओं का क्षरण हुआ है। बौद्धिक दासता और सांस्कृतिक उपनिवेशवाद: उपभोक्ता संस्कृति के कारण हम बौद्धिक दासता स्वीकार कर रहे हैं। हम बिना आलोचनात्मक दृष्टि अपनाए पश्चिम को श्रेष्ठ समझकर उसकी बौद्धिकता को स्वीकार कर रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप, हम पश्चिम के सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहे हैं। अनुकरण और छद्म आधुनिकता: हमारी नई संस्कृति अनुकरण की संस्कृति है। प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्धा में, हम जो हमारा अपना है, उसे खोकर छद्म आधुनिकता की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। छद्म आधुनिकता वह है जब हम आधुनिकता को वैचारिक आग्रह से नहीं, बल्कि केवल फ़ैशन के रूप में अपना लेते हैं। 2. नैतिक मूल्यों (नैतिक मानदंड) के लिए खतरा उपभोक्तावाद हमारे सामाजिक और नैतिक ताने-बाने को कमज़ोर कर रहा है: मर्यादाओं और मानदंडों का टूटना: इस संस्कृति के फैलाव से मर्यादाएँ टूट रही हैं और नैतिक मानदंड ढीले पड़ रहे हैं। स्वार्थ का हावी होना: व्यक्ति-केंद्रकता बढ़ रही है और स्वार्थ परमार्थ पर हावी हो रहा है। परमार्थ का अर्थ है दूसरों की भलाई। भोग की अति आकांक्षा: भोग की आकांक्षाएँ आसमान को छू रही हैं। सामाजिक अशांति: दिखावे की इस संस्कृति के फैलने से समाज में वर्गों की दूरी बढ़ रही है। जीवन स्तर का यह बढ़ता अंतर आक्रोश और अशांति को जन्म दे रहा है। 3. राष्ट्रीय विकास के लक्ष्यों के लिए खतरा उपभोक्ता संस्कृति राष्ट्रीय विकास के विराट उद्देश्यों से ध्यान हटाती है और संसाधनों का दुरुपयोग करती है: संसाधनों का अपव्यय: हमारे सीमित संसाधनों का घोर अपव्यय (फिजूलखर्ची) हो रहा है। लक्ष्य-भ्रम: हम सांस्कृतिक अस्मिता के ह्रास के साथ-साथ लक्ष्य-भ्रम से भी पीड़ित हैं। विकास के उद्देश्यों का पीछे हटना: विकास के विराट उद्देश्य पीछे हट रहे हैं। तात्कालिक लक्ष्यों का पीछा: हम गुणवत्ता (जीवन की गुणवत्ता आलू के चिप्स या शीतल पेयों से नहीं सुधरती) पर ध्यान देने के बजाय झूठी तुष्टि के तात्कालिक लक्ष्यों का पीछा कर रहे हैं। श्यामाचरण दुबे के निबंध के उद्धरणों के अनुसार, भारत पश्चिम (West) के सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहा है। यह एक कड़वा सच है कि भारतीय समाज उपभोक्ता संस्कृति के फैलाव के कारण निम्नलिखित कारणों से पश्चिम का सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहा है: बौद्धिक दासता: हम बौद्धिक दासता स्वीकार कर रहे हैं। बौद्धिक दासता का तात्पर्य है कि हम अन्य (पश्चिम) को श्रेष्ठ समझकर, उनकी बौद्धिकता के प्रति बिना आलोचनात्मक दृष्टि अपनाए उसे स्वीकार कर लेते हैं। अनुकरण की संस्कृति: हमारी नई संस्कृति अनुकरण की संस्कृति है। पहचान का ह्रास: हम प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्धा में जो हमारा अपना है, उसे खोकर छद्म आधुनिकता (बनावटी आधुनिकता) की गिरफ्त में आते जा रहे हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

उपभोक्तावाद की संस्कृति: एक अध्ययन मार्गदर्शिका

यह अध्ययन मार्गदर्शिका श्यामाचरण दुबे द्वारा लिखित निबंध "उपभोक्तावाद की संस्कृति" की गहरी समझ प्रदान करने के लिए तैयार की गई है।...