"बाजार दर्शन" पाठ से 15 महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर (कक्षा 12वीं, CBSE)
प्रश्न: लेखक ने 'बाजार दर्शन' पाठ में बाजार की किस शक्ति का वर्णन किया है?
उत्तर: लेखक ने 'बाजार दर्शन' पाठ में बाजार की सम्मोहन शक्ति का वर्णन किया है। यह शक्ति व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित करती है और उसे अनावश्यक वस्तुएँ खरीदने के लिए विवश कर देती है। बाजार अपनी चकाचौंध और दिखावे से व्यक्ति के मन को भ्रमित कर देता है, जिससे वह अपनी वास्तविक आवश्यकता को भूल जाता है।
प्रश्न: बाजार का जादू चढ़ने और उतरने पर व्यक्ति पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर: जब बाजार का जादू चढ़ता है, तो व्यक्ति अनावश्यक वस्तुएँ खरीदकर पैसे की फिजूलखर्ची करता है। उसे लगता है कि इन चीजों से उसे खुशी मिलेगी। लेकिन, जब जादू उतरता है, तो उसे अपनी खरीददारी व्यर्थ और बेतुकी लगने लगती है। उसे खरीदी हुई वस्तुओं से कोई खुशी नहीं मिलती, बल्कि ग्लानि और पश्चाताप होता है।
प्रश्न: 'परचेजिंग पावर' का क्या अर्थ है और यह बाजार में क्या भूमिका निभाती है?
उत्तर: 'परचेजिंग पावर' का अर्थ है खरीदने की शक्ति या क्रय शक्ति। यह बाजार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है क्योंकि यह लोगों को अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार वस्तुएँ खरीदने के लिए प्रेरित करती है। जिनके पास परचेजिंग पावर अधिक होती है, वे अक्सर बाजार की चकाचौंध में पड़कर अनावश्यक वस्तुएँ खरीद लेते हैं।
प्रश्न: 'बाजारूपन' किसे कहते हैं? इसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर: 'बाजारूपन' का अर्थ है बाजार का दिखावटी और शोषणकारी स्वरूप। यह तब आता है जब बाजार केवल लाभ कमाने का माध्यम बन जाता है और ग्राहकों की वास्तविक आवश्यकताओं की उपेक्षा करता है। इसका समाज पर यह प्रभाव पड़ता है कि लोग उपभोक्तावादी प्रवृत्ति के शिकार हो जाते हैं, दिखावे में विश्वास करने लगते हैं, और आपसी सद्भाव कम होता है।
प्रश्न: भगत जी का बाजार के प्रति क्या दृष्टिकोण था? वे बाजार का सदुपयोग कैसे करते थे?
उत्तर: भगत जी का बाजार के प्रति विरक्ति का दृष्टिकोण नहीं था, बल्कि वे उसे अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने का साधन मानते थे। वे बाजार जाते थे, अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ (जैसे जीरा, नमक) खरीदते थे, और फिर बाजार की ओर देखते भी नहीं थे। वे बाजार का सदुपयोग करते थे, उसकी चकाचौंध में फँसते नहीं थे।
प्रश्न: बाजार किसे सार्थक बनाता है?
उत्तर: बाजार उसे सार्थक बनाता है जो यह जानता है कि उसे क्या चाहिए और कितना चाहिए। जो व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं के प्रति सचेत होता है, वही बाजार का सही अर्थों में उपयोग कर पाता है। ऐसा व्यक्ति बाजार की सम्मोहन शक्ति से प्रभावित नहीं होता और केवल अपने काम की चीजें ही खरीदता है।
प्रश्न: लेखक ने 'मित्र' के उदाहरण से बाजार के किस प्रभाव को स्पष्ट किया है?
उत्तर: लेखक ने 'मित्र' के उदाहरण से बाजार के अंधाधुंध खरीददारी के प्रभाव को स्पष्ट किया है। उनके मित्र बाजार जाते हैं, बहुत सारी अनावश्यक चीजें खरीद लेते हैं और अंत में उन्हें पछतावा होता है। यह दर्शाता है कि मन खाली होने पर और आवश्यकताओं का पता न होने पर बाजार का जादू व्यक्ति को कैसे प्रभावित करता है।
प्रश्न: 'मन खाली होना' और 'मन भरा होना' का बाजार से क्या संबंध है?
उत्तर: 'मन खाली होना' का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी जरूरतों का पता नहीं। ऐसे में वह बाजार की चमक-दमक से आसानी से प्रभावित होकर अनावश्यक वस्तुएँ खरीद लेता है। 'मन भरा होना' का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं का स्पष्ट ज्ञान है। ऐसे में वह बाजार में जाकर भी विचलित नहीं होता और केवल काम की वस्तुएँ ही खरीदता है।
प्रश्न: बाजार को सार्थकता प्रदान करने वाले व्यक्ति को लेखक ने क्या कहा है?
उत्तर: बाजार को सार्थकता प्रदान करने वाले व्यक्ति को लेखक ने 'बाजार का सेवक' या 'बाजार का सच्चा उपभोक्ता' कहा है। ऐसे व्यक्ति ही बाजार को सही अर्थों में उपयोगी बनाते हैं, क्योंकि वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं और बाजार की अनावश्यक चकाचौंध से प्रभावित नहीं होते।
प्रश्न: बाजार का आमंत्रण कैसा होता है और इसका क्या परिणाम होता है?
उत्तर: बाजार का आमंत्रण मूक और आकर्षक होता है। यह व्यक्ति को अपनी ओर खींचता है और उसे यह भ्रम देता है कि सब कुछ उसके लिए है। इसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति अनावश्यक रूप से बाजार में भटकता है, अपनी परचेजिंग पावर का दुरुपयोग करता है, और अंततः असंतोष और ईर्ष्या से भर जाता है।
प्रश्न: 'पदार्थ' और 'पूर्ति' के संदर्भ में 'बाजार दर्शन' का क्या महत्व है?
उत्तर: 'बाजार दर्शन' में 'पदार्थ' और 'पूर्ति' के संदर्भ में यह महत्व है कि बाजार हमें विभिन्न पदार्थ (वस्तुएँ) प्रदान करता है, परंतु उनकी सही 'पूर्ति' तभी होती है जब वे हमारी वास्तविक आवश्यकता को पूरा करें। यदि पदार्थ केवल दिखावे के लिए खरीदे जाते हैं, तो वे मन को संतोष नहीं देते और पूर्ति का अनुभव नहीं होता।
प्रश्न: लेखक ने 'संतोषी व्यक्ति' और 'असंतुष्ट व्यक्ति' की तुलना बाजार के संदर्भ में कैसे की है?
उत्तर: लेखक ने बाजार के संदर्भ में संतोषी व्यक्ति को वह बताया है जो अपनी आवश्यकताओं को जानता है और उन पर नियंत्रण रखता है, जैसे भगत जी। वहीं, असंतुष्ट व्यक्ति वह है जिसका मन खाली रहता है और जो बाजार की चकाचौंध से प्रभावित होकर निरंतर अनावश्यक खरीदारी करता रहता है, जिससे उसे कभी संतोष नहीं मिलता।
प्रश्न: बाजार के 'आंखें खोल देने वाले' स्वरूप का क्या अर्थ है?
उत्तर: बाजार के 'आंखें खोल देने वाले' स्वरूप का अर्थ है कि बाजार अपनी आकर्षक वस्तुओं से ग्राहक की आँखें चौंधिया देता है। वह अपनी ओर ऐसे खींचता है कि व्यक्ति अपनी वास्तविक जरूरतें भूलकर व्यर्थ की खरीदारी कर बैठता है। यह व्यक्ति को उसकी खरीदने की क्षमता का अहसास कराता है, पर साथ ही उसे मानसिक रूप से असंतोष भी देता है।
प्रश्न: लेखक ने 'पैसे की व्यंग्य शक्ति' किसे कहा है?
उत्तर: लेखक ने 'पैसे की व्यंग्य शक्ति' उसे कहा है जब पैसा होते हुए भी व्यक्ति अपनी आवश्यकता की वस्तु नहीं खरीद पाता, या अनावश्यक वस्तुएँ खरीदकर बाद में पछताता है। यह पैसा अपनी ताकत का अजीब प्रदर्शन करता है, जिससे व्यक्ति अंदर से कमजोर और असंतुष्ट महसूस करता है।
प्रश्न: 'बाजार दर्शन' पाठ का केंद्रीय विचार क्या है?
उत्तर: 'बाजार दर्शन' पाठ का केंद्रीय विचार उपभोक्तावाद और बाजारवाद की आलोचना है। लेखक यह समझाना चाहते हैं कि बाजार का सदुपयोग कैसे किया जाए और अनावश्यक खरीदारी से कैसे बचा जाए। पाठ मनुष्य की आवश्यकताओं, संतोष और लालच के बीच के संबंध को स्पष्ट करते हुए एक स्वस्थ उपभोक्तावादी समाज की स्थापना का संदेश देता है।
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